18 Jan जन्म-दिवस= *अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे


 जन्म-दिवस= *अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे*=


महादेव गोविंद रानाडे का जन्म-18जन.1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव हुआ। भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग।इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे।उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें।श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। अत:उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया।श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना,वे बोले-बेटे,मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े।वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया।उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं,ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा।कोई भी अतिथि हो;नियमानुसार निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे;पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की।आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी।इतना ही नहीं,कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी।वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ।उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले। 

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारित्र के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे।उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये।इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये।उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है,जितना आर्थिक रूप से।अत:वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा;पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा,उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा।अत:इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे।अत: आज भी उन्हें याद किया जाता है।सादर वंदन।👏

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