19 March पुण्यतिथि गुरुदत्त विद्यार्थी
पुण्यतिथि
गुरुदत्त विद्यार्थी 19.03.1890
पं.गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26अप्रैल1864में पाकिस्तान के मुल्तान में प्रसिद्ध वीर सरदाना कुल में हुआ।* पिता लाला रामकृष्ण जी फ़ारसी के प्रसिद्ध विद्वान् थे।शुरू की शिक्षा मुल्तान में फिर लाहौर आए।यहाँ लाला हंसराज और लाला लाजपत राय भी पढ़ रहे थे।तीनों की आपस में दोस्ती हो गई।गुरुदत्त को विज्ञान में रुचि थी,वे हर चीज को विज्ञान की कसौटी पर कसते थे।इससे उनका व्यवहार नास्तिक हो गया।गुरुदत्त ने विज्ञान वर्ग से एम.ए.की शिक्षा ली।फिर पं.गुरुदत्त आर्य समाज के सम्पर्क में आये।और फिर से आस्तिक हो गये.1883में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती बीमार थे,लाहौर से दो लोगों को उनकी सेवा के लिये भेजा गया,उनमें एक गुरुदत्त भी थे।महर्षि दयानन्द के जीवनकाल में देश भर के अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये जिनमें से कई शिष्य थे।पं.गुरूदत्त उनके परम प्रिय शिष्य थे।महर्षि दयानन्द के बाद स्वयं को उन जैसा बनाने का प्रयास किया था।अत:सभी मित्र सहयोगी उनको वैदिक धर्म का सच्चा विद्वान् स्वीकार करते थे।पं.गुरूदत्त को इस बात का श्रेय था-उन्होंने महर्षि दयानन्द के न केवल दर्शन ही किए थे अपितु उनकी मृत्यु के दृश्य को कुछ ही दूरी से सामने से देखा।जिन शरीरिक कष्टों से महर्षि दयानन्द आक्रान्त थे और उस पर भी जिस ज्ञान से उन्होंने मृत्यु का संवरण किया उसे देख गुरुदत्त जी दंग रह गये।इस घटना के बाद तो आपका जीवन पूरी तरह से ज्ञानार्जन,वेदों के प्रचार-प्रसार व सामाजिक कार्यों में व्यतीत हुआ।महर्षि दयानन्द के बाद उनके साक्षात शिष्यों में संस्कृत व्याकरण के कोई प्रमुख विद्वान् हए तो वो आप ही थे।आप मेधावी तो थे,अत: संस्कृत अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया था।न केवल संस्कृत पढ़ी ही अपितु वे संस्कृत के बड़े समर्थक थे।जबकि उनका अंग्रेज़ी पर पूरा अधिकार था।विद्वानों को आपके ग्रन्थों को पढ़ने के लिए अंग्रेज़ी शब्द कोषों का सहारा लेना पड़ता।संस्कृत के प्रचार-प्रसार का कार्य महर्षि दयानन्द के बाद पं.गुरुदत्त जी ने ही आगे किया।अपने घर पर ही संस्कृत की कक्षायें खोली। यहां सरकारी सेवा के कई लोग संस्कृत पढ़ते।वे संस्कृत के महाज्ञानी थे।आपने ईश, माण्डूक्य,मण्डूक उपनिषदों काअंग्रेज़ी में अनुवाद किया।दयानन्द जी के देहान्त के बाद गुरुदत्त ने उनकी स्मृति में"दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज"की स्थापना का प्रस्ताव रखा।सभी ने समर्थन किया।आठ ह़जार रुपये एकत्र भी हो गये।विद्यालय हेतु गुरुदत्त ने देश के कई भागों में सभाएं कीं।वैदिक ज्ञान के साथ अंग्रेज़ी के ज्ञान की महत्ता भी बताई।इस काम में लाला लाजपत राय भी शामिल हुए।लाजपत राय के जोशीले भाषण,गुरुदत्त की अपील और लाला हंसराज के प्रयत्नों से तीन साल में 20000/ऩकद,44000/ के आश्वासन उन्हें मिले. *01जून1886को लाहौर में डीएवी स्कूल की स्थापना हो गई।लाला हंसराज इस विद्यालय के प्रथम प्राचार्य नियुक्त हुए*।वह लोकप्रिय वक्ता,उपदेशक थे।जनता उनके विचारों को ध्यान से सुनती थी,उनकी बातों का पालन करती थी।उनकी कथनी,करनी एक थी।अपने जीवन का एक- एक क्षण वैदिक धर्म,संस्कृति के उत्थान व संवृद्धि के लिए व्यतीत किया।उनका ध्येय वैदिक धर्म अभ्युदय, सामाजिक सुधार,कुविद्या का नाश,सुविद्या की वृद्धि, देश व विश्व से सभी प्रकार के अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करना था। *वह अपने समय के सबसे कम आयु के अजेय धार्मिक योद्धा थे।देश और समाज उनका ऋणी है।मृत्यु के समय उनकी आयु 26वर्ष थी.परिवार में माता,पत्नी, दो छोटे पुत्र थे।सहस्रों लोग उनकी अन्त्येष्टि में रहे। उनकी मृत्यु पर न केवल आर्य समाज के नेताओं ने बल्कि कई मतों के विद्वानों ने भी उन्हें श्रद्धाजंलि दी। पण्डित जी ने इतिहास में वह कार्य किया जिसका देश व विश्व पर गहरा प्रभाव हुआ।गुरुदत्त जी के दो अंग्रेज़ी लेख"वैदिक संज्ञा विज्ञान"व "यूरोप के विद्वान"को ऑक्सफ़ोर्ड वि.वि.के पाठ्यक्रम में शामिल किया.क्षय रोग से 19मार्च1890 को महज 26वर्ष आयु में उनकी मृत्यु हुई।
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