5 March जन्मदिवस शास्त्रीय स्वर की साधिका गंगूबाई हंगल
जन्मदिवस शास्त्रीय स्वर की साधिका गंगूबाई हंगल
05.03.1913
स्वर साधिका गंगूबाई हंगल का जन्म05मार्च 1913को कर्नाटक के धारवाड़ में केवट परिवार में हुआ* परिवार में एक कुप्रथा थी।कई कन्याओं को छोटी आयु में ही मंदिर में देवदासी के रूप में भेंट कर दिया जाता।वहां गीत,संगीत, नृत्य द्वारा वे अपना जीवन यापन करती।गंगूबाई की मां अम्बाबाई भी कर्नाटक संगीत की गायिका थीं।गंगूबाई ग्रामोफोन की आवाज सुन सड़क पर दौड़ जाती,फिर वह उस गीत को दोहराने लगती।हर समय गाते,गुनगुनाते देख मां ने गंगूबाई को शास्त्रीय गायन की शिक्षा दिलाने का निश्चय किया।गंगूबाई के परिवार में गरीबी का साम्राज्य था।भद्दी जातीय टिप्पणियां भी की जाती।उन दिनों केवल पुरुष ही गाते-बजातेे थे तथा उन्हें भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था।आते-जाते गांव और आसपास के लोग उन्हें "गानेवाली"कह लांछित करते थे।कहीं से भोजन की दावत पर सहपाठियों को घर के अन्दर,और गंगूबाई को बरामदे में बैठाकर भोजन कराते।गंगूबाई ने अपनी लगन से सबका मुंह बंद कर दिया.12वर्ष आयु में बेलगांव कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में स्वागत गीत और राष्ट्रगान गाकर गांधी जी तथा अन्य बड़े नेताओं से प्रशंसा पाई. गंगूबाई की मां ने अपनी बेटी को तत्कालीनदिग्गजसंगीतज्ञ श्री के.एच.कृष्णाचार्य,फिर किराना घराने के उस्ताद सवाई गंधर्व से शिक्षा दिलाई. गंगूबाई ने पूरी निष्ठा से संगीत सीखा।वे अपने घर से 30कि.मी.रेल से,फिर पैदल चलकर गुरु सवाई गंधर्व के घर जाती थीं।"भारत रत्न'से सम्मानित पं.भीमसेन जोशी उनके गुरुभाई थे।वहां रोजाना आठ घंटे अभ्यास करती।गंगूबाई शास्त्रीय गायन में मिलावट की विरोधी थीं।उन्होंने आजीवन किराना घराने की शुद्धता का पालन किया.सैकड़ों राग अधिकार पूर्वक वे गाती थीं;पर उन्हें असावरी,भैरवी तोड़ी,भीम- पलासी,पुरिया,धनश्री, मारवा,केदार और चंद्रकौंस रागों से सर्वाधिक प्रशंसा, प्रसिद्धि मिली।काम के प्रति समर्पण अत्यधिक था।कार्यक्रम के समय उनका बच्चा रोने लगता,तो वे बलपूर्वक उधर से ध्यान हटा लेती।कई कलाकारों के साथ मिलकर आकाशवाणी की चयन पद्धति का विरोध किया,तो आकाशवाणी ने कई वर्ष उनके कार्यक्रमों का बहिष्कार किया;पर झुकना स्वीकार नहीं।पद्मविभूषण, पद्मभूषण,तानसेन पुरस्कार. कर्नाटकसंगीत नृत्यअकादमी सम्मान,संगीत नाटक अकादमी जैसे सम्मानों से अलंकृत गंगूबाई हंगल को महानगर की चकाचैंध से कोई आकर्षण नहीं था।वे चाहतीं तो दिल्ली,मुंबई, बंगलौर,पुणे में रह सकती थीं;जीवन के संध्या काल में हुबली में रहकर नये कलाकारों को शिक्षा देना पसंद किया. *2002में हड्डी कैंसर सेअपनी इच्छाशक्ति के बल पर जीत गयी. "21जुलाई2009"को वे सदा के लिये शांत हो गई।मृत्यु के बाद उनके नेत्र दान कर दिये गये.सादर वंदन.
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