28मार्च जन्म-दिवस सिख पन्थ के सेवक सन्त अतरसिंह*


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*========जन्मदिवस========= ========(28मार्च1866)======        जन्म-दिवस सिख पन्थ के सेवक सन्त अतरसिंह*

*संत अतरसिंह जी का जन्म 28 मार्च,1866को ग्राम चीमा(संगरूर, पंजाब)में हुआ था*। इनके पिता श्री करमसिंह तथा माता श्रीमती भोली जी थीं। छोटी अवस्था में वे फटे- पुराने कपड़ों के टुकड़ों की माला बनाकर उससे जप करते रहते थे। लौकिक शिक्षा की बात चलने पर वे कहते कि हमें तो बस सत्य की ही शिक्षा लेनी है। 

घर वालों के आग्रह पर उन्होंने गांव में स्थित निर्मला सम्प्रदाय के डेरे में संत बूटा सिंह से गुरुमुखी की शिक्षा ली। कुछ बड़े होकर वे घर में खेती, पशु चराना आदि कामों में हाथ बंटाने लगे। एक साधु ने इनके पैर में पद्मरेखा देखकर इनके संत बनने की भविष्यवाणी की। 

1883 में वे सेना में भर्ती हो गये। घर से सगाई का पत्र आने पर उन्होंने जवाब दिया कि अकाल पुरुख की ओर से विवाह का आदेश नहीं है। 54 पल्टन में काम करते हुए उन्होंने अमृत छका और फिर निष्ठापूर्वक सिख मर्यादा का पालन करने लगे। वे सूर्योदय से पूर्व कई घंटे जप और ध्यान करते थे। 

पिताजी के देहांत से उनके मन में वैराग्य जागा और वे पैदल ही हुजूर साहिब चल दिये। माया मोह से मुक्ति के लिए सारा धन उन्होंने नदी में फेंक दिया।हुजूर साहिब में दो साल और फिर हरिद्वार और ऋषिकेश के जंगलों में जाकर कठोर साधना की। इसके बाद वे अमृतसर तथा दमदमा साहिब गये। 

इसी प्रकार भ्रमण करते वे अपने गांव पहुंचे।मां के आग्रह पर वे वहीं रुक गये। उन्होंने मां से कहा कि जिस दिन तुम मेरे विवाह की चर्चा करोगी,मैं यहां से चला जाऊंगा।मां ने आश्वासन तो दिया; पर एक बार उन्होंने फिर यह प्रसंग छेड़ दिया। इससे नाराज होकर वे चल दिये और सियालकोट जा पहुंचे।इसके बाद सेना से भी नाम कटवा कर वे सभी ओर से मुक्त हो गये।

इसके बाद कनोहे गांव के जंगल में रहकर उन्होंने साधना की।इस दौरान वहां अनेक चमत्कार हुए,जिससे उनकी ख्याति चहुंओर फैल गयी। वे पंथ,संगत और गुरुघर की सेवा, कीर्तन और अमृत छककर पंथ की मर्यादानुसार चलने पर बहुत जोर देते थे।वे कीर्तन में राग के बदले भाव पर अधिक ध्यान देते थे।उन्होंने14लाख लोगों को अमृतपान कराया। 

1901में उन्होंने मस्तुआणा के जंगल में डेरा डालकर उसे एक महान तीर्थ बना दिया। संत जी ने स्वयं लौकिक शिक्षा नहीं पायी थी; पर उन्होंने वहां पंथ की शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रबंध किया।उन्होंने पंजाब में कई शिक्षा संस्थान स्थापित किये, जिससे लाखों छात्र लाभान्वित हो रहे हैं.1911

में राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित हुई। इस अवसर पर सिख राजाओं ने उनके नेतृत्व और श्री गुरुग्रंथ साहिब की हुजूरी में शाही जुलूस में भाग लिया।जार्ज पंचम के सामने से निकलने पर उन्होंने पद गाया - 

कोउ हरि समान नहीं राजा। 

ऐ भूपति सभ दिवस चार के, झूठे करत नवाजा। 

यह सुनकर जार्ज पंचम भी सम्मानपूर्वक खड़ा हो गया। 1914में मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहले विद्यालय की नींव संत जी के हाथ से रखवाई। 

माताजी के अंत समय में उन्होंने माता जी को जीवन और मृत्यु के बारे में उपदेश दिया,इससे उनके कष्टों का शमन हुआ।जब गुरुद्वारों के प्रबंध को लेकर पंथ में भारी विवाद हुआ,तो उन्होंने सबको साथ लेकर चलने पर जोर दिया। 

*इसी प्रकार पंथ और संगत की सेवा करते हुए 31जनवरी,1927 को अमृत समय में ही उनका शरीर शांत हुआ।उनके विचारों का प्रचार-प्रसार कलगीधर ट्रस्ट,बड़ू साहिब के माध्यम से उनके प्रियजन कर रहे हैं.सादर वंदन.सादर नमन🙏🙏🙏🙏

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