29 March Mekran dada
कच्छ (गुजरात) के एक ऐसे सन्त जिनके आज भी लाखों भक्त हैं और उनकी कीर्ति आज भी वैसी ही है, जैसी उनके जीवनकाल में थी।
इनका नाम मेकोजी (बाद में मेकण अथवा मेकरण डाडा के नाम से प्रसिद्ध हुए)था। इनका जन्म कच्छ के खोम्भड़ी गाँव में हाधाजी भाटी राजपूत के घर माता पाबां बा की कोख से(सन 1667,विक्रम सम्वत 1723में) हुआ था।आपने जीवनभर कच्छ के रण में यात्रा करने वाले यात्रियों को अन्न,जल व आश्रय प्रदान करने केलिए भुज से लगभग 40 किमी उत्तर पूर्व में स्थित ध्रंग(लोडाई)में कुटिया बनाई।इस सेवा में इनके सहयोगी बने 'लालियो'(गधा)व 'मोतियो'(कुत्ता)लालिये की पीठ पर आहार व जल लादकर रण में सन्त मेकण विचरण करते,जब कोई यात्री दिखाई देता तो मोतिया अपनी आवाज से अपनी ओर आने को प्रेरित करता, ताकि उसे कुछ आहार दिया जा सके।
सन्त मेकण डाडा को लोग कच्छ का कबीर भी मानते हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी साखियों के माध्यम से तत्कालीन समाज में व्याप्त आडम्बरों पर बड़ी ही सटीकता से चोट की थी। मेकण डाडा की ये साखियां आज भी स्थानीय जनमानस की जुबान पर लोकोक्तियों के रूप में विद्यमान हैं। मेकण डाडा को भगवान श्रीराम के लघु भ्राता लक्ष्मणजी का अवतार माना जाता है। उनके अनुयायियों में सभी जाति बिरादरियों के लोग थे,जिनमें कच्छ के तत्कालीन राजा राव देशलजी जाडेजा का नाम भी शामिल है।राव देशल जी ने मेकण डाडा के कहने पर उनकी कर्मभूमि के आसपास के क्षेत्र में शिकार पर प्रतिबंध लगाया था,ताकि प्राकृतिक वातावरण हमेशा सुरक्षित रहे।
मेकण डाडा ने ध्रंग में ही अपने ग्यारह शिष्यों सहित समाधि ले ली थी।इन 11शिष्यों में सभी जातियों के सदस्य थे।
इनके अनुयायी जब आपस में मिलते हैं तो "जीनाम" शब्द बोलकर सामने वाले आगन्तुक का अभिवादन करते हैं।
वर्तमान में इस स्थान पर विशाल परिसर निर्मित है,जहां आज भी मानव व जीव जन्तुओं की सेवा जारी है।
वैसे तो इस स्थान पर वर्षभर देश-विदेश से लाखों श्रद्धालुओं का आवागमन रहता है,मगर महाशिवरात्रि के दिन यहाँ विशाल मेला लगता है।
-आनन्द सिंह तुँवर,रामदेवरा(राजस्थान)


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